एक और नोकरी और वही जितना हो सके उतना लोक संघटन ! लोक जागरण... कुछ रचनात्मक कार्य शुरु हुआ | जिसमे पत्थर फोडनेवाली वडार जाती के बच्चों की पढाई, बस्तीका मटका जुगार बंद करवाना, वेश्याओं की बस्ती मे बच्चों का अध्यायन वर्ग लेना, पीछड़ी जाति के विद्यार्थीयों का होस्टल संभालना, आंबेडकर जयंती निर्वाण दिन मनाना, दलित अत्याचार विरोध में जुलूस, मोर्चा, प्रदर्शन सब शुरु हुए... वह चिल्लाकर जी जान के आक्रोश से कहने की कोशीश थी | उससे प्रगट होकर खूब भर आया मन कुछ अंशी में खुलकर खाली होने का अनुभव आ रहा था हुई...विषमतापर टिकी व्यवस्था बदलने के लिये, जातिव्यवस्था मिटाने के लिये उनके प्रयासोंकी अपुर्वता लगने लगी ।
१९८३ को क्रांतीपर्व नाम से कविता प्रकाशित हुई स्वयं अपने आपसे किये संग्रामने जो आनंद दिया वो शब्दों में नहीं समा सकता... फिर भी उसे शब्दरुप देनेका चस्का लग जाने से जीने के साथ कविता भी अपरिहार्य बन गयी | इस मन की बात से कविता का आशय अधिक उजागर होगा |
....और ऐसा होनेपर वह जिनके लिए और जिनके बारे में बोलती है, उन्हे वह अधिक अंतर्मुखी करेगी ऐसी मेरी धारणा है । मेरी कविता और मेरा जीवन समांतर चलने से मेरी जीवन यात्रा बताने मोह मै टाल नही सकता |……(किताबसे)
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